Tuesday, January 7, 2025

खलनायक से नायक का सफर साल 1993, जब "खलनायक" फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचाया था। हर तरफ बस एक ही गाना गूंज रहा था, "चोली के पीछे क्या है।" संजय दत्त अपनी काली पट्टी और एक आंख ढंके, फिल्म में कुछ ऐसे झूम रहे थे जैसे वह किसी सीक्रेट मिशन पर हों। लेकिन उनकी आँखों की पट्टी को देखकर हमारे दिमाग में एक और तस्वीर उभरती है—1990 के दशक की कैटरेक्ट सर्जरी के बाद मरीज़ों की हालत! वर्ष 1990s के दशक में कैटरेक्ट सर्जरी के बाद मरीज़ों को एक हरी पट्टी पहनाई जाती थी। और हिदायतें? ऐसी लगती थीं जैसे मरीज़ ने कोई कसम खा ली हो—"मोतियाबिन्द ऑपरेशन के बाद लगभग दो माह तक घरों में कम प्रकाश या अँधेरे में रहना, न झुकना, न टी.वी. देखना, न किताब पढ़ना, और हां, एक से डेढ़ माह तक तो नहाना तो भूल ही जाओ!" बेचारे मोतियाबिन्द की सर्जरी करवा चुके मरीज़ इस डर में रहते थे कि अगर आँखों में कुछ इन्फेक्शन आदि हो गया .... आँख की रोशनी चली गई तो.... वे फिर से परिजनों एवं चिकित्सक के सम्मुख खलनायक बन जायेंगे. उन्हें यह भी डर अनवरत सताता था कि खलनायक फिल्म में दिखाए किरदार संजय दत्त की तरह काली पट्टी की तरह उनकी दुनिया में हमेशा के लिये अँधेरा नहीं छा जाए। हरी पट्टी की कहानी: हरी पट्टी सिर्फ एक पट्टी नहीं थी, यह उन दिनों की बड़े चीरे वाली मोतियाबिन्द सर्जरी का प्रतीक थी। मरीज़ को ऐसा महसूस होता था जैसे वह किसी साइलेंट फिल्म का हिस्सा बन गए हों। परिचितों एवं पड़ोसियों का पूछना, "भाईसाहब, आपकी आंख को क्या हो गया?" इस को और भी गंभीर बना देता था। और बच्चों की बात मत पूछिए—वे कभी-कभी मरीज़ को देखकर डर जाते थे जैसे उन्होंने कोई हॉरर फिल्म देख ली हो। दो माह तक घर के अंदर बंद रहना, अंधेरे में बैठे रहना, न झुकना, न उठना। मरीज़ को ऐसा लगता था जैसे वह किसी तपस्या पर निकल आए हों। और अगर गलती से मरीज़ ने नियम तोड़ दिए, तो घरवालों का डायलॉग तैयार रहता था, "कहीं आँख मत कर लेना... रोगी हमेशा इस डर के साये में रहता कि यदि ऑपरेशन के बाद आंखों में कोई भी जटिलता या दुष्प्रभाव (Complications) हुआ तो उसका सारा का सारा दोष रोगी पर डालकर उसे परिजनों द्वारा खलनायक बना दिया जाता।" नायक बनने की शुरुआत: फिर आया छोटे से चीरे से की जाने वाली फेकोइमल्सिफिकेशन और मुलायम प्रीमियम इंट्राओक्युलर लेंस (IOL) का दौर। हरी पट्टी और पुराने लंबे परहेजो का अंत होने लगा। कैटरेक्ट सर्जरी अब डे-केयर प्रक्रिया बन गई। मरीज़ मोतियाबिन्द सर्जरी के बाद सीधा घर जा सकता है.... और आँखों के डॉक्टर की हिदायतें भी बदल गईं—"भाईसाहब, लैंस लग गया है, सात दिन सिर के नीचे से नहाना है, अब आप अख़बार पढ़ सकते हैं, टी.वी. देख सकते हैं, मोबाइल का उपयोग कर सकते हैं।" प्रीमियम (Multifocal, Trifocal and EDOF ) कृत्रिम लेंस के बाद अब चश्में पर भी निर्भरता कम से कम होती जा रही है. आज का मरीज़ जब 'काली पट्टी' वाली फिल्म देखता है, तो हंसता है और सोचता है, "अच्छा हुआ कि फेकोइमल्सिफिकेशन आ गया, वरना मैं भी खलनायक की तरह घूम रहा होता।" खलनायक से नायक बनने का सफर: अब वह दिन गए जब कैटरेक्ट सर्जरी के बाद मरीज़ को महीनों तक नियमों की गाड़ी खींचनी पड़ती थी। अब आधुनिकतम पद्धति से मोतियाबिन्द ऑपरेशन एवं प्रीमियम कृत्रिम लैंस प्रत्यारोपण के बाद मरीज़ नायक की तरह आत्मविश्वास से भरकर अपने काम पर लौट सकता है। न हरी पट्टी, न पुरानी हिदायतें। यह नेत्र चिकित्सा विज्ञान की साइलेंट क्रांति है, जो करोड़ों रोगियों को नया प्रकाश दे रही है.... डॉ. सुरेश पाण्डेय, डॉ विदुषी शर्मा सुवि नेत्र चिकित्सालय, कोटा From Villain to Hero: A Journey Through Cataract Surgery Evolution The year was 1993, and Bollywood was abuzz with the blockbuster movie Khalnayak. The iconic song "Choli Ke Peeche Kya Hai" was on everyone’s lips, and Sanjay Dutt's menacing look with a black eye patch became a signature style. But while Sanjay Dutt grooved with his patch, it evoked a starkly different memory for many Indians—cataract surgery patients from the 1990s. The Days of the Green Bandage (Green Patti) Back in the '90s, cataract surgery was a major ordeal. Patients were sent home with a green bandage covering their eyes, symbolizing a long and restrictive recovery. The post-operative instructions? A list of strict prohibitions: no bending, no TV, no reading, and certainly no bathing for nearly two months! The fear of complications loomed large—any mishap could lead to permanent blindness, making patients feel like villains in their own homes. For these individuals, life after cataract surgery was shrouded in fear and darkness. Neighbors would ask, "What happened to your eye?" Children would stare as if they'd seen a character from a horror movie. Patients often found themselves explaining their condition repeatedly, adding emotional stress to their physical discomfort. These were the reasons why most patients feared undergoing cataract surgery very much. Many of these became blind due to complications such as phacomorphic glaucoma, etc. A Silent Revolution Then came the game-changer: phacoemulsification and foldable intraocular lenses (IOLs). This breakthrough transformed cataract surgery into a quick, efficient, and minimally invasive procedure. The once-dreaded surgery became a day-care process, with patients returning home the same day. The bulky green bandage was replaced with a simple protective transparent glasses. Post-surgery instructions became far more lenient: "You can read the newspaper, watch TV, and even use your smartphone within a day. Just avoid headbath and getting water in your eyes for a week." Premium lenses—multifocal, trifocal, and extended depth of focus (EDOF)—have further minimized dependency on glasses, offering patients sharper vision and a better quality of life. From Villain to Hero Today, cataract surgery patients look back at the '90s era of green bandages with relief and amusement. They no longer fear becoming a khalnayak (villain) to their families due to complications or restrictions. Instead, they emerge as confident heroes, resuming their daily lives with enhanced vision and a renewed sense of independence. This transformation is nothing short of a silent revolution in ophthalmology, bringing light to millions and rewriting the narrative of cataract surgery from one of fear to one of hope and empowerment. Dr. Suresh Pandey Dr. Vidushi Sharma SuVi Eye Hospital, Kota #CataractRevolution #EndOfGreenPatch #Phacoemulsification #FromVillainToHero #ModernCataractSurgery #DrSureshKPandey #DrVidushiSharma #SuViEyeHospitalKota #कैटरेक्टक्रांति #हरीपट्टीकाअंत #फेकोइमल्सिफिकेशन #खलनायकसेनायक #आधुनिककैटरेक्टसर्जरी

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